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क्या जाने कितने ही रंगों में डूबी है | शाही शायरी
kya jaane kitne hi rangon mein Dubi hai

ग़ज़ल

क्या जाने कितने ही रंगों में डूबी है

कैफ़ अहमद सिद्दीकी

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क्या जाने कितने ही रंगों में डूबी है
रंग बदलती दुनिया में जो यक-रंगी है

मंज़र मंज़र ढलता जाता है पीला-पन
चेहरा चेहरा सब्ज़ उदासी फैल रही है

पीली साँसें भूरी आँखें सुर्ख़ निगाहें
उन्नाबी एहसास तबीअत तारीख़ी है

देख गुलाबी सन्नाटों में रहने वाले
आवाज़ों की ख़ामोशी कितनी काली है

आज सफ़ेदी भी काला मल्बूस पहन कर
अपनी चमकती रंगत का मातम करती है

सारी ख़बरों में जैसे इक ज़हर भरा है
आज अख़बारों की हर सुर्ख़ी नीली है

'कैफ़' कहाँ तक तुम ख़ुद को बे-दाग़ रख्खोगे
अब तो सारी दुनिया के मुँह पर स्याही है