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क्या इश्क़ का लें नाम हवस आम नहीं है | शाही शायरी
kya ishq ka len nam hawas aam nahin hai

ग़ज़ल

क्या इश्क़ का लें नाम हवस आम नहीं है

सज्जाद बाक़र रिज़वी

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क्या इश्क़ का लें नाम हवस आम नहीं है
अंधों को अँधेरे में कोई काम नहीं है

था जाम तो इस आस पे बैठे थे कि मय आए
मय आई तो रिंदों के लिए जाम नहीं है

जीते हो तो जीने का एवज़ ज़ीस्त से माँगो
मौत अपना मुक़द्दर है ये इनआ'म नहीं है

कट जाएगी ये रात गुज़ारो किसी करवट
अब सुब्ह से पहले तो कोई शाम नहीं है

जीते थे कि सर-ए-दोश पे था बार-ए-गराँ था
मरते हैं कि सर पर कोई इल्ज़ाम नहीं है

याँ रौशनी-ए-सुब्ह तो वाँ निकहत-ए-गुल है
यूँ हुस्न-ए-गुरेज़ाँ का कोई नाम नहीं है

ख़ुद वक़्त को मिलता है सुकूँ तेरी गली में
सुनते हैं वहाँ गर्दिश-ए-अय्याम नहीं है

साया हूँ मगर मेहर-ए-दरख़्शाँ से है निस्बत
ज़ुल्मत हूँ पर अंधों से मुझे काम नहीं है

'बाक़र' से नहीं इज़्ज़त-ए-सादात पे कुछ हर्फ़
आशिक़ तो बना फिरता है बदनाम नहीं है