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क्या हक़ीक़त में नहीं थे ये सज़ा-वार तिरे | शाही शायरी
kya haqiqat mein nahin the ye saza-war tere

ग़ज़ल

क्या हक़ीक़त में नहीं थे ये सज़ा-वार तिरे

कौसर नियाज़ी

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क्या हक़ीक़त में नहीं थे ये सज़ा-वार तिरे
क्यूँ शिफ़ा-याब न हो पाए ये बीमार तिरे

अब्र क्या क्या न इनायात के बरसे लेकिन
जाँ-ब-लब आज भी हैं तिश्ना-ए-दीदार तिरे

है सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
किस क़दर सादा-तबीअत हैं परस्तार तिरे

तुझ से करते हैं तक़ाज़ा तिरी तस्वीरों का
हम हक़ीक़त में अगरचे हैं तलबगार तिरे

मर गया क्या तिरा शायर तिरा 'कौसर'-नियाज़ी
सूने सूने से हैं क्यूँ कूचा ओ बाज़ार तिरे