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क्या गुल खिलाए देखिए तपती हुई हवा | शाही शायरी
kya gul khilae dekhiye tapti hui hawa

ग़ज़ल

क्या गुल खिलाए देखिए तपती हुई हवा

हज़ीं लुधियानवी

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क्या गुल खिलाए देखिए तपती हुई हवा
मस्मूम हो गई है महकती हुई हवा

ये चीथडों में फूल ये सरगर्म-ए-कार लोग
ये दोपहर की धूप ये जलती हुई हवा

ज़िंदा वही रहेगा जिसे हो शुऊ'र-ए-ज़ीस्त
कहती है रोज़ रंग बदलती हुई हवा

बादल घिरे तो और भी शो'ला-फ़िशाँ हुई
फूलों की पत्तियों को झुलसती हुई हवा

तूफ़ान-ए-गर्द-ओ-बाद से सँवला न जाएँ लोग
फिर रुक गई है शहर में चलती हुई हवा

कुम्हला न जाए गुलशन-ए-शाम-ओ-सहर 'हज़ीं'
मुद्दत से चल रही है सुलगती हुई हवा