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क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ | शाही शायरी
kya dekhte ho rah mein ruk kar yahan wahan

ग़ज़ल

क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ

मोहसिन ज़ैदी

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क्या देखते हो राह में रुक कर यहाँ वहाँ
है क़त्ल-ओ-ख़ूँ का एक सा मंज़र यहाँ वहाँ

ज़ेर-ए-नगीं उसी के सभी क़र्या-ओ-दयार
उस के ही सब हैं ख़ेमा-ओ-लश्कर यहाँ वहाँ

है दरमियान-ए-ख़ंजर-ओ-सर फ़ासले का फ़र्क़
वर्ना सरों पे है वही ख़ंजर यहाँ वहाँ

शीशे के सब मकाँ हैं शिकस्ता इधर उधर
बिखरे पड़े हैं शहर में पत्थर यहाँ वहाँ

महफ़ूज़ रह गया न कोई रास्ता न मोड़
जाया करो न घर से निकल कर यहाँ वहाँ

लगता है अब उलटने को है ये बिसात-ए-शब
सरगोशियाँ यही हैं बराबर यहाँ वहाँ

'मोहसिन' अजीब हब्स का आलम है और मैं
कोई दरीचा है न कोई दर यहाँ वहाँ