क्या दौर है कि जो भी सुखनवर मिला मुझे
गुम-गश्ता अपनी ज़ात के अंदर मिला मुझे
किस प्यार से गया था तिरी आस्तीं के पास
शाख़-ए-हिना की चाह में ख़ंजर मिला मुझे
इस ज़ुल्मत-ए-हयात में इक लफ़्ज़ प्यार का
जब मिल गया तो माह-ए-मुनव्वर मिला मुझे
सूरत-गरान-ए-अस्र का था इंतिज़ार-कश
तेरी रह-ए-तलब में जो पत्थर मिला मुझे
रोज़-ए-अज़ल से कार-गह-ए-हस्त में 'सुहैल'
दिल ही ग़म-ए-हयात का मेहवर मिला मुझे
ग़ज़ल
क्या दौर है कि जो भी सुखनवर मिला मुझे
अदीब सुहैल