क्या चीज़ है ये सई-ए-पैहम क्या जज़्बा-ए-कामिल होता है
अल्लाह को अगर मंज़ूर न हो हर मक़्सद बातिल होता है
इक टीस सी पैहम पाता हूँ क्या इस को मोहब्बत कहते हैं
महसूस मुझे मीठा मीठा कुछ दर्द सा ऐ दिल होता है
तस्कीन को धोका देते हैं नाकाम तमन्ना ये कह कर
हर-गाम पे मंज़िल होती है हर मौज में साहिल होता है
ये रंज-ओ-अलम ही मेरे लिए अब ज़ीस्त का उनवाँ हैं हमदम
इस दुनिया में पहले पहले हर काम ही मुश्किल होता है
तस्कीन सी क्यूँ मिल जाती है मिज़राब-ए-दस्त-ए-शौक़ मुझे
हर तार-ए-गरेबाँ क्या वहशत के साज़ का हामिल होता है
ग़ज़ल
क्या चीज़ है ये सई-ए-पैहम क्या जज़्बा-ए-कामिल होता है
शकेब जलाली