क्या बोलूँ कैसी अर्ज़ानी मेरी थी
वो सूरज था और पेशानी मेरी थी
इक तस्वीर निहाँ थी वक़्त के पर्दे में
ग़ौर से जो मैं ने पहचानी मेरी थी
जितने भी मौजूद थे मंज़र उस के थे
और आँखों की सब हैरानी मेरी थी
अब देखूँ तो ना-मुम्किन सा लगता है
ये दुनिया इक दिन दीवानी मेरी थी
फ़र्क़ ही क्या था सर जाता या रह जाता
जब सच की फ़स्ल-ए-इम्कानी मेरी थी
मैं ही हवा में उँगलियों से लिखता था
अब जितनी भी थी हैरानी मेरी थी
कैसे कटती ये ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़-ए-तौर
जब दुनिया भर की वीरानी मेरी थी
ग़ज़ल
क्या बोलूँ कैसी अर्ज़ानी मेरी थी
कृष्ण कुमार तूर

