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क्या बतलाऊँ कैसे दिन मैं काट रहा हूँ | शाही शायरी
kya batlaun kaise din main kaT raha hun

ग़ज़ल

क्या बतलाऊँ कैसे दिन मैं काट रहा हूँ

ख़लील रामपुरी

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क्या बतलाऊँ कैसे दिन मैं काट रहा हूँ
मोती हूँ और रस्ते में बेकार पड़ा हूँ

लम्बी लम्बी कारों वालों से अच्छा हूँ
रूखी-सूखी जो मिलती है खा लेता हूँ

तन्हाई में अक्सर मैं सोचा करता हूँ
सूरज चाँद सितारे क्या हैं और मैं क्या हूँ

बादल पर्बत दरिया चश्मे जंगल सहरा
क्यूँ भाते हैं मैं इन सब का क्या लगता हूँ

आग और पानी में कहते हैं बैर बड़ा है
लेकिन मैं तो उस से मिल कर ख़ुश होता हूँ

इतनी नफ़रत यारो मुझ से क्यूँ करते हो
मैं भी गुलशन का इक गुल हूँ तुम जैसा हूँ

मेरे चाहने वालों का भी इक हल्क़ा है
मैं भी गुलज़ारों की वादी का झरना हूँ

मेरे चाल-चलन से भी कुछ हासिल कर लो
मैं भी इक अवतार का सा दर्जा रखता हूँ

एक ही मंज़र ने आँखों को ढाँप रखा है
रोज़-ए-अव्वल से ये सूरज देख रहा हूँ

ख़ुद से जब बातें करने को जी चाहा है
घर से उठ कर नदी किनारे जा बैठा हूँ

मेरे हाल से दुनिया का अंदाज़ा कर लो
मैं फलदार शजर का इक पीला पत्ता हूँ

ध्यान को तन्हाई के घर का पेड़ समझिए
मैं भी उस के साए में बरसों बैठा हूँ

जाने किस पल की ख़ुश्बू है मेरे आगे
जाने किस दुनिया के पीछे दौड़ रहा हूँ

कैसे कैसे लोग गुज़रते हैं नज़रों से
सारा दिन मैं कैसे कैसे दुख सहता हूँ

मेरे ख़द्द-ओ-ख़ाल को देखो और पहचानो
मैं भी अपनी इरफ़ानी का कतबा हूँ

बस के पहिए ख़ाक उड़ा जाते हैं मुझ पर
वो क्या जानें कौन हूँ और किस का चेहरा हूँ

अता-पता क्या पूछ रहे हो मेरा लोगो
रामपूरी शाइर हूँ और ग़ज़लें कहता हूँ