क्या बताऊँ कि मैं चुप-चुप सा क्या सुनता हूँ
अपने अंदर से बिखरने की सदा सुनता हूँ
सब के सो जाने पे अफ़्लाक से क्या कहता है
रात को एक परिंदे की सदा सुनता हूँ
इक अजब सा है सुकूत और सदा का संगम
महवियत में कभी इक ऐसी नवा सुनता हूँ
नाज़ है मुझ को कि आग़ाज़-ए-तजस्सुस हूँ मैं
मुझ से पहले भी कोई था ये मैं क्या सुनता हूँ
कभी आती नहीं अपने कहीं होने की सदा
गाह पेड़ों की भी साँसों की सदा सुनता हूँ
आ रही है मुझे फिर जैसे सदा-ए-अतराफ़
फिर मैं जैसे कोई पैग़ाम नया सुनता हूँ
शाम को 'तल्ख़' ये फ़ितरत से सुख़न करने में
क्या कहूँ चुप की सदा बोलता या सुनता हूँ
ग़ज़ल
क्या बताऊँ कि मैं चुप-चुप सा क्या सुनता हूँ
मनमोहन तल्ख़