क्या बताऊँ आज वो मुझ से जुदा क्यूँकर हुआ
मुद्दतों का आश्ना ना-आश्ना क्यूँकर हुआ
तेरे हर नक़्श-ए-क़दम पर जिस ने सज्दा कर दिया
तेरी नज़रों में भला वो बेवफ़ा क्यूँकर हुआ
मेरी बर्बादी में जिस का हाथ था वो फ़ित्ना-गर
पूछता है अब मुझे ये हादिसा क्यूँकर हुआ
जिस के हाथों ने जलाया गुलिस्ताँ का गुलिस्ताँ
इस का घर भी जल गया तो फिर बुरा क्यूँकर हुआ
आदमी तो आदमी का था शरीक-ए-रंज-ओ-ग़म
मुंक़ता' फिर आज-कल ये सिलसिला क्यूँकर हुआ
जिस की रहमत चंद लोगों के लिए मख़्सूस हो
होगा कुछ लोगों का वो सब का ख़ुदा क्यूँकर हुआ
जब तिरी नज़रें लगी हैं कौसर-ओ-तसनीम पर
फिर बता शैख़-ए-हरम तू पारसा क्यूँकर हुआ
दार पर लटका दिए जाते हैं हक़-गो ऐ 'शफ़क़'
हक़ को हक़ कहने का तुझ को हौसला क्यूँकर हुआ
ग़ज़ल
क्या बताऊँ आज वो मुझ से जुदा क्यूँकर हुआ
गोपाल कृष्णा शफ़क़