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क्या बात थी कि उस को सँवरने नहीं दिया | शाही शायरी
kya baat thi ki usko sanwarne nahin diya

ग़ज़ल

क्या बात थी कि उस को सँवरने नहीं दिया

फ़ातिमा वसीया जायसी

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क्या बात थी कि उस को सँवरने नहीं दिया
आईना हाथ में था निखरने नहीं दिया

तूफ़ान में फँसे तो किनारे तक आ गए
साहिल ने उन को फिर भी उभरने नहीं दिया

इस दौर-ए-पुर-फ़ितन में सलीक़े से टूट कर
टूटे तो रोज़ ही पे बिखरने नहीं दिया

हम ने अमीर-ए-शहर को सज्दा नहीं किया
ख़ुद्दारी-ए-मिज़ाज ने गिरने नहीं दिया

रद्द-ओ-क़दह के बअ'द 'वसीया' ने आज भी
मेआर से ग़ज़ल को उतरने नहीं दिया