EN اردو
कूचा-ए-यार ऐन कासी है | शाही शायरी
kucha-e-yar ain kasi hai

ग़ज़ल

कूचा-ए-यार ऐन कासी है

वली मोहम्मद वली

;

कूचा-ए-यार ऐन कासी है
जोगी-ए-दिल वहाँ का बासी है

पी के बैराग की उदासी सूँ
दिल पे मेरे सदा उदासी है

ऐ सनम तुझ जबीं उपर ये ख़ाल
हिंदवी हर-द्वार बासी है

ज़ुल्फ़ तेरी है मौज जमुना की
तिल नज़िक उस के जियूँ सनासी है

घर तिरा है ये रश्क-ए-देवल-ए-चीं
उस में मुद्दत सूँ दिल उपासी है

ये सियह-ज़ुल्फ़ तुझ ज़नख़दाँ पर
नागनी ज्यूँ कुँवे पे प्यासी है

तास-ए-ख़ुर्शीद ग़र्क़ है जब सूँ
बर में तेरे लिबास-ए-तासी है

जिस की गुफ़्तार में नहीं है मज़ा
सुख़न उस का तआ'म बासी है

ऐ 'वली' जो लिबास तन पे रखा
आशिक़ाँ के नज़िक लिबासी है