EN اردو
कुर्सी-ए-दिल पे तिरे जाते ही दर्द आ बैठे | शाही शायरी
kursi-e-dil pe tere jate hi dard aa baiThe

ग़ज़ल

कुर्सी-ए-दिल पे तिरे जाते ही दर्द आ बैठे

फ़रहत एहसास

;

कुर्सी-ए-दिल पे तिरे जाते ही दर्द आ बैठे
जैसे आईना-ए-बे-कार पे गर्द आ बैठे

पहली मंज़िल पे ही टकरा के गिरे दुनिया से
पाँव तुड़वा के तमाम अहल-ए-नवर्द आ बैठे

दावत-ए-दीद जो उस क़ामत-ए-रंगीं की मिली
बज़्म में हम भी लिए ये रुख़-ए-ज़र्द आ बैठे

औरतें काम पे निकली थीं बदन घर रख कर
जिस्म ख़ाली जो नज़र आए तो मर्द आ बैठे

शहर इक सम्त से जंगल सा नज़र आने लगा
शहर के दिल में भी क्या दश्त-नवर्द आ बैठे

'फ़रहत-एहसास' की ताज़ीम में उट्ठा था समाज
और वो उस की जगह सूरत-ए-फ़र्द आ बैठे