कुछ याद नहीं उस को कि क्या भूल गया है
दिल जैसे कि जीने की अदा भूल गया है
मौसम के बदलते ही मिज़ाज उस का भी बदला
वो मेरी वफ़ाओं का सिला भूल गया है
मैं याद हूँ जिस शख़्स को सीने से लगाए
वो शख़्स तो अब नाम मिरा भूल गया है
कानों पे है बस एक सदा का तिरी पहरा
हर एक सदा उस के सिवा भूल गया है
बीमार को उस सम्त नहीं फ़िक्र-ए-मुदावा
उस सम्त मुआलिज भी दवा भूल गया है
मा'लूम करें पूछ के कुछ उस से सवालात
क्या याद है उस शख़्स को क्या भूल गया है
क़िर्तास ने हर एक अमल कर लिया महफ़ूज़
मुजरिम ही मगर अपनी ख़ता भूल गया है
पादाश में आ'माल की नज़रों से गिरा कर
लगता है कि अब हम को ख़ुदा भूल गया है
इल्ज़ाम न दो तुम नए शाइ'र को 'सईद' आज
जो सुर्ख़ी-ए-लब रंग-ए-हिना भूल गया है

ग़ज़ल
कुछ याद नहीं उस को कि क्या भूल गया है
जे. पी. सईद