कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही अस्बाब थे
कोह से नीचे उतर कर कंकरी चुनते हैं अब
इश्क़ में जो आबजू थे जंग में सैलाब थे
साज़ ओ सामाँ थे ज़फ़र के पर वो शब में लुट गए
ख़ाक ओ ख़ूँ के दरमियाँ कुछ ख़्वाब कुछ कम-ख़्वाब थे
क्या दम-ए-रुख़्सत नज़र आते ख़ुतूत-ए-दिलबरी
नक़्श थे उस चाँद के लेकिन ब-शक्ल-ए-आब थे
मैं उदू की जुस्तुजू में था कि इक पत्थर लगा
मुड़ के देखा तो सिनाँ ताने हुए अहबाब थे
थे बहुत नायाब वो नूर-ए-क़लम ज़ोर-ए-बयाँ
शोला उट्ठा जब जुनूँ का फिर वही नायाब थे
क्या फ़िराक़ ओ फ़ैज़ से लेना था मुझ को ऐ 'नईम'
मेरे आगे फ़िक्र-ओ-फ़न के कुछ नए आदाब थे
ग़ज़ल
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुक़द्दस ख़्वाब थे
हसन नईम