कुछ उस मक़ाम से अब दिल का कारवाँ गुज़रे
यक़ीं की हद से जो गुज़रे तो बे-ज़बाँ गुज़रे
ये इत्तिफ़ाक़ कहाँ है कि आँख भर आई
मोहब्बतों में कोई कैसे बे-निशाँ गुज़रे
मुझी से हो के गुज़रती है राह दुनिया की
सो मुझ से हो के ज़मीं और आसमाँ गुज़रे
तअ'ल्लुक़ात में वो मरहले भी कैसे थे
यक़ीन और गुमाँ के जो दरमियाँ गुज़रे
तिलिस्म-ए-रंग में उलझे हुए हैं सब 'दानिश'
जो देखने हैं वो मंज़र अभी कहाँ गुज़रे
ग़ज़ल
कुछ उस मक़ाम से अब दिल का कारवाँ गुज़रे
मदन मोहन दानिश

