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कुछ तो वुफ़ूर-ए-शौक़ में बाइ'स-ए-इम्तियाज़ हो | शाही शायरी
kuchh to wufur-e-shauq mein bais-e-imtiyaz ho

ग़ज़ल

कुछ तो वुफ़ूर-ए-शौक़ में बाइ'स-ए-इम्तियाज़ हो

फ़रहत कानपुरी

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कुछ तो वुफ़ूर-ए-शौक़ में बाइ'स-ए-इम्तियाज़ हो
मेरी नज़र के सामने उन की हरीम-ए-नाज़ हो

सोज़-ए-दुरून-ओ-आह-ए-दिल इश्क़ में दोनों एक हैं
हम को तो इक सुरूर है सोज़ हो या कि साज़ हो

वो दिल नज़ारा-कोश तेरा ये ज़ौक़-ए-बे-ख़ुदी
जल्वे की ताब हो न हो उन की हरीम-ए-नाज़ हो

नाज़ है शौक़-ए-आफ़रीं शौक़ है शोरिश-ए-दिमाग़
हुस्न है आरज़ू-पसंद इश्क़ जुनूँ-नवाज़ हो

ज़ौक़-ए-तलब को इश्क़ ने तुर्फ़ा सबक़ ये दे दिया
नाला-ए-दिल-ख़राश बन आह-ए-जिगर-गुदाज़ हो

दिल की तड़प में ऐ ख़ुदा कुछ तो हो ज़ौक-ए-आफ़ियत
दर्द वो दे जो इश्क़ में बाइ'स-ए-इम्तियाज़ हो

'फ़रहत'-ए-आरज़ू-पसंद दर्स-ए-नियाज़-ए-इश्क़ ने
कूचा-ए-मा'रिफ़त में आ शेफ़्ता मजाज़ हो