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कुछ तो मैं भी डरा डरा सा था | शाही शायरी
kuchh to main bhi Dara Dara sa tha

ग़ज़ल

कुछ तो मैं भी डरा डरा सा था

सलमान अख़्तर

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कुछ तो मैं भी डरा डरा सा था
और कुछ रास्ता नया सा था

झूट और सच के दरमियाँ था जो
आज वो पुल भी टूटता सा था

जिस से सारे चराग़ जलते थे
वो चराग़ आज कुछ बुझा सा था

रास आए न उस के रस्म-ओ-रिवाज
शहर हम से ख़फ़ा ख़फ़ा सा था

बुत समझते थे जिस को सारे लोग
वो मिरे वास्ते ख़ुदा सा था