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कुछ क़दम और मुझे जिस्म को ढोना है यहाँ | शाही शायरी
kuchh qadam aur mujhe jism ko Dhona hai yahan

ग़ज़ल

कुछ क़दम और मुझे जिस्म को ढोना है यहाँ

शारिक़ कैफ़ी

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कुछ क़दम और मुझे जिस्म को ढोना है यहाँ
साथ लाया हूँ उसी को जिसे खोना है यहाँ

भीड़ छट जाएगी पल में ये ख़बर उड़ते ही
अब कोई और तमाशा नहीं होना है यहाँ

ये भँवर कौन सा मोती मुझे दे सकता है
बात ये है कि मुझे ख़ुद को डुबोना है यहाँ

क्या मिला दश्त में आ कर तिरे दीवाने को
घर के जैसा ही अगर जागना सोना है यहाँ

कुछ भी हो जाए न मानूँगा मगर जिस्म की बात
आज मुजरिम तो किसी और को होना है यहाँ

यूँ भी दरकार है मुझ को किसी बीनाई का लम्स
अब किसी और का होना मिरा होना है यहाँ

अश्क पलकों पे सजा लूँ मैं अभी से 'शारिक़'
शब है बाक़ी तो तिरा ज़िक्र भी होना है यहाँ