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कुछ नया करने की ख़्वाहिश में पुराने हो गए | शाही शायरी
kuchh naya karne ki KHwahish mein purane ho gae

ग़ज़ल

कुछ नया करने की ख़्वाहिश में पुराने हो गए

फ़सीह अकमल

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कुछ नया करने की ख़्वाहिश में पुराने हो गए
बाल चाँदी हो गए बच्चे सियाने हो गए

ज़िंदगी हँसने लगी परछाइयों के शहर में
चाँद क्या उभरा कि सब मंज़र सुहाने हो गए

रेत पर तो टूट कर बरसे मगर बस्ती पे कम
इस नई रुत में तो बादल भी दिवाने हो गए

बादलों को देख कर वो याद करता है मुझे
इस कहानी को सुने कितने ज़माने हो गए

जोड़ता रहता हूँ अक्सर एक क़िस्से के वरक़
जिस के सब किरदार लोगो बे-ठिकाने हो गए

'मीर' का दीवान आँखें जिस्म 'क़ाएम' की ग़ज़ल
जाने किस के नाम मेरे सब ख़ज़ाने हो गए

रेत पर इक ना-मुकम्मल नक़्श था क़ुर्बत का ख़्वाब
फ़ासला बढ़ने के 'अक्मल' सौ बहाने हो गए