EN اردو
कुछ नहीं समझा हूँ इतना मुख़्तसर पैग़ाम था | शाही शायरी
kuchh nahin samjha hun itna muKHtasar paigham tha

ग़ज़ल

कुछ नहीं समझा हूँ इतना मुख़्तसर पैग़ाम था

ज़फ़र इक़बाल

;

कुछ नहीं समझा हूँ इतना मुख़्तसर पैग़ाम था
क्या हवा थी जिस हवा के हाथ पर पैग़ाम था

उस को आना था कि वो मुझ को बुलाता था कहीं
रात भर बारिश थी उस का रात भर पैग़ाम था

लेने वाला ही कोई बाक़ी नहीं था शहर में
वर्ना तो उस शाम कोई दर-ब-दर पैग़ाम था

मुंतज़िर थी जैसे ख़ुद ही तिनका तिनका आरज़ू
ख़ार-ओ-ख़स के वास्ते गोया शरर पैग़ाम था

क्या मुसाफ़िर थे कि थे रंज-ए-सफ़र से बे-नियाज़
आने जाने के लिए इक रह-गुज़र पैग़ाम था

कोई काग़ज़ एक मैले से लिफ़ाफ़े में था बंद
खोल कर देखा तो उस में सर-ब-सर पैग़ाम था

हर क़दम पर रास्तों के रंग थे बिखरे हुए
चलने वालों के लिए अपना सफ़र पैग़ाम था

कुछ सिफ़त उस में परिंदों और पत्तों की भी थी
कितनी शादाबी थी और कैसा शजर पैग़ाम था

और तो लाया न था पैग़ाम साथ अपने 'ज़फ़र'
जो भी था उस का यही ऐब ओ हुनर पैग़ाम था