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कुछ नहीं गरचे तिरी राहगुज़र से आगे | शाही शायरी
kuchh nahin garche teri rahguzar se aage

ग़ज़ल

कुछ नहीं गरचे तिरी राहगुज़र से आगे

फ़ारिग़ बुख़ारी

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कुछ नहीं गरचे तिरी राहगुज़र से आगे
देखना कुफ़्र नहीं हद्द-ए-नज़र से आगे

ख़ुद-फ़रेबी के लिए गर्म-ए-सफ़र हैं वर्ना
क्या है मंज़िल के सिवा गर्द-ए-सफ़र से आगे

मेरा अफ़्लाक भी तस्कीन-ए-नज़र हो न सका
थे वही शम्स-ओ-क़मर शम्स-ओ-क़मर से आगे

ज़िंदगी वक़्त की दीवारों में महबूस रही
कोई पर्दा न उठा शाम-ओ-सहर से आगे

आज के दौर का दावा है कि अन्क़ा के सिवा
कोई उक़्दा नहीं इरफ़ान-ए-बशर से आगे

क़तरे क़तरे को तरसते रहे सहरा 'फ़ारिग़'
झूम कर उठ्ठे भी बादल तो वो बरसे आगे