कुछ न पाई दिल ने तस्कीं और कुछ पाई तो क्या
ऐसी सूरत से तिरी सूरत नज़र आई तो क्या
एक दुश्मन के कहे पर नाज़ वो भी इस क़दर
अपने मतलब को किसी ने आप की गाई तो क्या
होश आना था कि वो ख़ासे सितमगर बन गए
हाए री क़िस्मत कि उन को अक़्ल भी आई तो क्या
ओ जफ़ा-पेशा शगुफ़्ता ख़ातिरी है और शय
यूँ हँसी आने को रोने में हँसी आई तो क्या
आप अपने दिल से पूछें आप ही सोचें ज़रा
मेरी आहों में अगर तासीर भी आई तो क्या
मेरे लाशे पर अगर तशरीफ़ भी लाए तो हेच
बा'द मेरे उन को मेरी याद भी आई तो क्या
अपनी आदत से वो बाज़ आ जाएँ मुमकिन ही नहीं
कहने-सुनने से घड़ी-भर को हया आई तो क्या
कुछ न कुछ अग़्यार ने पट्टी पढ़ाई है ज़रूर
तुम ने खाने को मिरे सर की क़सम खाई तो क्या
था जो कुछ तक़दीर का होना वो हो कर ही रहा
करने वालों ने जो की भी चारा-फ़रमाई तो क्या
बे-वफ़ाओं में तो कुछ गिनती नहीं तेरी तरह
हम को कहती है अगर मख़्लूक़ सौदाई तो क्या
ऐ 'सफ़ी' तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ कर के इतराते हो क्यूँ
उम्र-भर में ये हुई है तुम से दानाई तो क्या

ग़ज़ल
कुछ न पाई दिल ने तस्कीं और कुछ पाई तो क्या
सफ़ी औरंगाबादी