कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
आसमाँ देखते रहा कीजे
चार-दीवारी-ए-अनासिर में
कूदते-फाँदते रहा कीजे
इस तहय्युर के कार-ख़ाने में
उँगलियाँ काटते रहा कीजे
खिड़कियाँ बे-सबब नहीं होतीं
ताकते-झाँकते रहा कीजे
रास्ते ख़्वाब भी दिखाते हैं
नींद में जागते रहा कीजे
फ़स्ल ऐसी नहीं जवानी की
देखते-भालते रहा कीजे
आईने बे-जहत नहीं होते
अक्स पहचानते रहा कीजे
ज़िंदगी इस तरह नहीं कटती
फ़क़त अंदाज़ते रहा कीजे
ना-सिपासान-ए-इल्म के सर पे
पगड़ियाँ बाँधते रहा कीजे
ग़ज़ल
कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
रसा चुग़ताई