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कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे | शाही शायरी
kuchh na kuchh sochte raha kije

ग़ज़ल

कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे

रसा चुग़ताई

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कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
आसमाँ देखते रहा कीजे

चार-दीवारी-ए-अनासिर में
कूदते-फाँदते रहा कीजे

इस तहय्युर के कार-ख़ाने में
उँगलियाँ काटते रहा कीजे

खिड़कियाँ बे-सबब नहीं होतीं
ताकते-झाँकते रहा कीजे

रास्ते ख़्वाब भी दिखाते हैं
नींद में जागते रहा कीजे

फ़स्ल ऐसी नहीं जवानी की
देखते-भालते रहा कीजे

आईने बे-जहत नहीं होते
अक्स पहचानते रहा कीजे

ज़िंदगी इस तरह नहीं कटती
फ़क़त अंदाज़ते रहा कीजे

ना-सिपासान-ए-इल्म के सर पे
पगड़ियाँ बाँधते रहा कीजे