कुछ लहू तो फ़रोज़ाँ हमारा भी है
शहर पर इतना एहसाँ हमारा भी है
देखना बख़िया-ए-जामा-ए-वक़्त में
एक तार-ए-गरेबाँ हमारा भी है
हक़-बयानों की ख़ातिर है वुसअ'त बड़ी
कुछ यही ख़्वाब-ए-ज़िंदाँ हमारा भी है
वो जो फ़र्द-ए-वफ़ा में क़लम-ज़द हुए
नाम उन में नुमायाँ हमारा भी है
हर कड़े वक़्त से सहल गुज़रे मगर
इन दिनों दिल परेशाँ हमारा भी है
कुछ तो ढब हो कि अब अपनी नस्लें कहें
ये दयार-ए-बुज़ुर्गाँ हमारा भी है
जब से जागा है ग़ज़लों में शहर-ए-नवा
रूत्बा-दाँ हर सुख़न-दाँ हमारा भी है
ग़ज़ल
कुछ लहू तो फ़रोज़ाँ हमारा भी है
महशर बदायुनी

