कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की
दिल का उस कुंज-ए-लब से दे है निशाँ
बात लगती तो है ठिकाने की
वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
है ये तक़रीब जी के जाने की
तेज़ यूँ ही न थी शब आतिश-ए-शौक़
थी ख़बर गर्म उस के आने की
ख़िज़्र उस ख़त्त-ए-सब्ज़ पर तो मुआ
धुन है अब अपने ज़हर खाने की
दिल-ए-सद-चाक बाब-ए-जुल्फ़ है लेक
बाव सी बंध रही है शाने की
किसू कम-ज़र्फ़ ने लगाई आह
तुझ से मय-ख़ाने के जलाने की
वर्ना ऐ शैख़-ए-शहर वाजिब थी
जाम-दारी शराब-ख़ाने की
जो है सो पाएमाल-ए-ग़म है 'मीर'
चाल बे-डोल है ज़माने की
ग़ज़ल
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
मीर तक़ी मीर