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कुछ काम नहीं है यहाँ वहशत के बराबर | शाही शायरी
kuchh kaam nahin hai yahan wahshat ke barabar

ग़ज़ल

कुछ काम नहीं है यहाँ वहशत के बराबर

अबरार अहमद

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कुछ काम नहीं है यहाँ वहशत के बराबर
सो तुम हमें ग़म दो कोई हिम्मत के बराबर

कब लगता है जी राह-ए-सहूलत में हमेशा
और मिलता है कब रंज ज़रूरत के बराबर

आसाइश-ओ-आराम हो या जाह-ओ-हशम हो
क्या चीज़ यहाँ पर है मोहब्बत के बराबर

गुंजाइश-ए-अफ़्सोस निकल आती है हर रोज़
मसरूफ़ नहीं रहता हूँ फ़ुर्सत के बराबर

भर लाए हैं हम आँख में रखने को मुक़ाबिल
इक ख़्वाब-ए-तमन्ना तिरी ग़फ़लत के बराबर

रख देंगे तिरे पाँव में हम मौज में आ कर
दुनिया है कहाँ जान की क़ीमत के बराबर

फिर कश्मकश-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ कार-ए-ज़ियाँ है
जब जीत भी ठहरी है हज़ीमत के बराबर

जीने में जो एहसास-ए-तफ़ाख़ुर है कहाँ है
जीते चले जाने की नदामत के बराबर