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कुछ इशारे वो सर-ए-बज़्म जो कर जाते हैं | शाही शायरी
kuchh ishaare wo sar-e-bazm jo kar jate hain

ग़ज़ल

कुछ इशारे वो सर-ए-बज़्म जो कर जाते हैं

शेर सिंह नाज़ देहलवी

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कुछ इशारे वो सर-ए-बज़्म जो कर जाते हैं
नावक-ए-नाज़ कलेजे में उतर जाते हैं

अहल-ए-दिल राह-ए-अदम से भी गुज़र जाते हैं
नाम-लेवा तिरे बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर जाते हैं

सफ़र-ए-ज़ीस्त हुआ ख़त्म न सोचा लेकिन
हम को जाना है कहाँ और किधर जाते हैं

निगह-ए-लुत्फ़ में है उक़्दा-कुशाई मुज़्मर
काम बिगड़े हुए बंदों के सँवर जाते हैं

क़ाबिल-ए-दीद है महशर में ख़जालत उन की
दो क़दम चलते हैं रुकते हैं ठहर जाते हैं

ख़ूब बदनाम किया अपनी सियहकारी ने
उँगलियाँ उठती हैं महशर में जिधर जाते हैं

आँख खुल जाती है चौंक उठते हैं सोने वाले
वो दबे पाँव जो तुर्बत से गुज़र जाते हैं

चारागर हाजत-ए-मरहम नहीं उन को असलन
ज़ख़्म-ए-दिल लज़्ज़त-ए-ईसार से भर जाते हैं

आह-ए-सोज़ाँ से जो निकले थे सितारे शब-ए-ग़म
बन के तारे वही गर्दूं पे बिखर जाते हैं

आज तक लौट कर आया न जहाँ से कोई
हम-सफ़ीरान-ए-जहाँ हम भी उधर जाते हैं

बहर-ए-ग़म में वही फँसते हैं जो होते हैं गिराँ
जो सुबुक होते हैं वो पार उतर जाते हैं

कुश्ता-ए-नाज़ तिरा क्यूँ न ज़मीं पर लोटे
दाग़-ए-दिल जितने हैं इस तरह वो भर जाते हैं