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कुछ इस तरह वो निगाहें चुराए जाते हैं | शाही शायरी
kuchh is tarah wo nigahen churae jate hain

ग़ज़ल

कुछ इस तरह वो निगाहें चुराए जाते हैं

शम्स ज़ुबैरी

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कुछ इस तरह वो निगाहें चुराए जाते हैं
कि और भी मिरे नज़दीक आए जाते हैं

इस इल्तिफ़ात-ए-गुरेज़ाँ को नाम क्या दीजे
जवाब देते नहीं मुस्कुराए जाते हैं

निगाह-ए-लुत्फ़ से देखो न अहल-ए-दिल की तरफ़
दिलों के राज़ ज़बानों पे आए जाते हैं

वो जिन से तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ को इक ज़माना हुआ
न जाने आज वो क्यूँ याद आए जाते हैं

तुम्हारी बज़्म की कुछ और बात है वर्ना
हम ऐसे लोग कहीं बिन बुलाए जाते हैं

ये दिल के ज़ख़्म भी कितने अजीब हैं ऐ 'शम्स'
बहार हो कि ख़िज़ाँ मुस्कुराए जाते हैं