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कुछ इस तरह से तसव्वुर में आ रहा है कोई | शाही शायरी
kuchh is tarah se tasawwur mein aa raha hai koi

ग़ज़ल

कुछ इस तरह से तसव्वुर में आ रहा है कोई

एहसान दानिश

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कुछ इस तरह से तसव्वुर में आ रहा है कोई
चराग़ रूह में जैसे जला रहा है कोई

कोई कलीम उठे वर्ना इंतिज़ार के बा'द
चराग़-ए-तूर-ए-मोहब्बत बुझा रहा है कोई

वो दैर का था कि का'बे का ये नहीं मा'लूम
मिरी ख़ुदी का मुहाफ़िज़ ख़ुदा रहा है कोई

जो रोकना हो तो आ बढ़ के रोक ले वर्ना
तिरे हदूद-ए-तग़ाफ़ुल से जा रहा है कोई

रवाँ-दवाँ नहीं बे-वज्ह कारवान-ए-हयात
मुझे ज़रूर कहीं से बुला रहा है कोई

बदल रहे हैं जुनून-ओ-ख़िरद के पैमाने
किस एहतिमाम-ए-तग़य्युर से आ रहा है कोई

न कुछ मलाल-ए-असीरी न ख़तरा-ए-सय्याद
क़फ़स समझ के नशेमन बना रहा है कोई

ज़मीन-ओ-चर्ख़ ने इंकार कर दिया जिस से
वो बार दोश-ए-वफ़ा पर उठा रहा है कोई

जहान-ए-नौ में ब-रंग-ए-कशाकश-ए-पैहम
हयात-ए-नौ के सलीक़े सिखा रहा है कोई

ख़बर करो ये हक़ाएक़ के पासबानों को
मजाज़ खो के हक़ीक़त में आ रहा है कोई

न जाने कौन सी मंज़िल में इश्क़ है कि मुझे
मिरे हुदूद से बाहर बुला रहा है कोई

डरो ख़ुदा से बड़ा बोल बोलने वालो
क़रीब हम से भी बे-इंतिहा रहा है कोई

मुझे सितम में इज़ाफ़े का ग़म नहीं लेकिन
यक़ीन कर कि मिरे बा'द आ रहा है कोई

निगाह-ओ-लब में हँसी की सकत नहीं लेकिन
ब-जब्र-ए-इश्क़-ओ-वफ़ा मुस्कुरा रहा है कोई

ये सुब्ह-ओ-शाम की यूरिश ये मौसमों की रविश
कि जैसे मेरे तआ'क़ुब में आ रहा है कोई

किसी को इस की ख़बर ही नहीं थी कुछ 'एहसान'
कि मिट के अपना ज़माना बना रहा है कोई