कुछ इस तरह निगाह से इज़हार कर गए
जैसे वो मुझ को वाक़िफ़-ए-असरार कर गए
इक़रार कर दिया कभी इंकार कर गए
बे-ख़ुद बना दिया कभी हुश्यार कर गए
यक-ताई-ए-जमाल की हैरत न पूछिए
हर मा-सिवा के वहम से बे-ज़ार कर गए
कुछ इस अदा से जल्वा-ए-मअ'नी की शरह की
मेरे ख़याल-ओ-फ़िक्र को बेकार कर गए
अल्लाह रे उन के जल्वा-ए-रंगीं की फ़ितरतें
सारे जहाँ को नक़्श-ब-दीवार कर गए
वादे का उन के ज़िक्र ही 'माहिर' फ़ुज़ूल है
तुम क्या करोगे वो अगर इंकार कर गए
ग़ज़ल
कुछ इस तरह निगाह से इज़हार कर गए
माहिर-उल क़ादरी

