कुछ इस तरह ग़म-ए-उल्फ़त की काएनात लुटी
मिरी ज़बान से निकली हर एक बात लुटी
क़ज़ा ज़रूर थी आनी मगर ज़हे तक़दीर
जहाँ में हुस्न के हाथों मिरी हयात लुटी
ख़बर हुई किसी मदहोश-ए-ऐश को न ज़रा
हमारी बज़्म-ए-तमन्ना तमाम रात लुटी
तबाह-ए-इश्क़ हैं बुलबुल चकोर परवाना
रह-ए-जहाँ में न सिर्फ़ आदमी की ज़ात लुटी
न जाम है न सुराही है देख ऐ साक़ी
मिरे न होने से बज़्म-ए-तकल्लुफ़ात लुटी
मुझे तो लूट लिया 'अश्क' रंज-ओ-ग़म ने मगर
मिरी किसी से न बज़्म-ए-तख़य्युलात लुटी

ग़ज़ल
कुछ इस तरह ग़म-ए-उल्फ़त की काएनात लुटी
सय्यद मोहम्मद ज़फ़र अशक संभली