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कुछ इस अदा से हमें ग़म-गुसार मिलते हैं | शाही शायरी
kuchh is ada se hamein gham-gusar milte hain

ग़ज़ल

कुछ इस अदा से हमें ग़म-गुसार मिलते हैं

नाज़ बट

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कुछ इस अदा से हमें ग़म-गुसार मिलते हैं
हज़ार ज़ख़्म पस-ए-ए'तिबार मिलते हैं

शब-ए-फ़िराक़ की वहशत न पूछिए हम से
हम अपने हिज्र से दीवाना-वार मिलते हैं

ये शहर-ए-ज़ख़्म-फ़रोशां है हाए क्या कीजे
कि पा-ए-गुल भी यहाँ ख़ार ख़ार मिलते हैं

वो जिन की कोख में शौक़-ए-ख़िरद पनपता है
वो वलवले भी जुनूँ का शिकार मिलते हैं

सजा के रखते हैं जिन को चमक की ख़्वाहिश में
वो आइने भी हमें दाग़-दार मिलते हैं

हमें उन्ही से तवक़्क़ो' है 'नाज़' मंज़िल की
जो रास्ते हमें बन कर ग़ुबार मिलते हैं