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कुछ हद भी ऐ फ़लक सितम-ए-ना-रवा की है | शाही शायरी
kuchh had bhi ai falak sitam-e-na-rawa ki hai

ग़ज़ल

कुछ हद भी ऐ फ़लक सितम-ए-ना-रवा की है

रसूल जहाँ बेगम मख़फ़ी बदायूनी

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कुछ हद भी ऐ फ़लक सितम-ए-ना-रवा की है
हर साँस दास्ताँ तिरे जौर-ओ-जफ़ा की है

हाजत-रवा की और न ज़रूरत दुआ की है
अब छोड़ चारासाज़ जो मर्ज़ी ख़ुदा की है

दामान-ए-ज़ब्त चाक तो कर दे जुनूँ मगर
तौहीन ये मिरे दिल-ए-ग़म-आशना की है

ख़ून-ए-हयात ख़ून-ए-तरब ख़ून-ए-आरज़ू
ये शरह-ए-मुख़्तसर मिरी उम्र-ए-वफ़ा की है

ग़ैरत ने मेरी ख़ुद ही सफ़ीना डुबो दिया
देखा नज़र फिरी हुई कुछ नाख़ुदा की है

बर्बादियों से दर्स-ए-बक़ा ले रही हूँ मैं
ये सुन्नत-ए-कुहन शह-ए-करब-ओ-बला की है

इरफ़ान-ए-ग़म से नफ़्स का इरफ़ाँ हुआ नसीब
सीढ़ी ये पहली मा'रिफ़त-ए-किब्रिया की है

हम से ख़िज़ाँ-नसीब क़फ़स में भी शाद हैं
लाई जो बू-ए-गुल ये इनायत सबा की है

ख़ुद्दारियों ने ज़ीस्त को आसाँ बना दिया
बेताबियों की ख़ू है न आह-ओ-बका की है

माना कि तुझ को ऐश की जन्नत नसीब है
तहक़ीर-ए-ग़म न कर कि ये ने'मत ख़ुदा की है

इस ज़िंदगी ने साथ किसी का नहीं दिया
किस बेवफ़ा से तुझ को तमन्ना वफ़ा की है

कश्ती को मेरी मौजों से पहुँचा नहीं गुज़र
मिन्नत-गुदाज़ ये करम-ए-नाख़ुदा की है

'मख़फ़ी' पनाह-ए-चादर-ए-ज़ेहरा न छोड़ना
ता'लीम-ए-नौ सुना है कि दुश्मन हया की है