कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
पानी को अब तो सर से गुज़र जाना चाहिए
नश्तर-ब-दसत शहर से चारागरी की लौ
ऐ ज़ख़्म-ए-बे-कसी तुझे भर जाना चाहिए
हर बार एड़ियों पे गिरा है मिरा लहू
मक़्तल में अब ये तर्ज़-ए-दिगर जाना चाहिए
क्या चल सकेंगे जिन का फ़क़त मसअला ये है
जाने से पहले रख़्त-ए-सफ़र जाना चाहिए
सारा जवार-भाटा मिरे दिल में है मगर
इल्ज़ाम ये भी चाँद के सर जाना चाहिए
जब भी गए अज़ाब-ए-दर-ओ-बाम था वही
आख़िर को कितनी देर से घर जाना चाहिए
तोहमत लगा के माँ पे जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़न-फ़रोश को मर जाना चाहिए
ग़ज़ल
कुछ फ़ैसला तो हो कि किधर जाना चाहिए
परवीन शाकिर