कुछ दिल का तअल्लुक़ तो निभाओ कि चला मैं
या टूट के आवाज़ लगाओ कि चला मैं
दरपेश मसाफ़त है किसी ख़्वाब-नगर की
इक दीप मिरे पास जलाओ कि चला मैं
इस शहर के लोगों पे भरोसा नहीं करना
ज़ंजीर कोई दर पे लगाओ कि चला मैं
ता-दिल में तुम्हारे भी न एहसास-ए-वफ़ा हो
जी भर के मुझे आज सताओ कि चला मैं
मुश्ताक़ निगाहों से ये सेहर टूट रहा है
चेहरे पे कोई रंग सजाओ कि चला मैं
इस शहर-ए-मरासिम में तो संगसार हुआ हूँ
पत्थर ही सर-ए-राह सजाओ कि चला मैं
इस तिश्ना-लबी पर मुझे एज़ाज़ तो बख़्शो
ऐ बादा-कशो जाम उठाओ कि चला मैं
इस दर्जा तग़ाफ़ुल की नहीं ताब जिगर को
तुम और बहाने न बनाओ कि चला मैं
इक ख़्वाब है वो ख़्वाब तो पूरा करो 'साहिल'
इक शेर मिरा मुझ को सुनाओ कि चला मैं
ग़ज़ल
कुछ दिल का तअल्लुक़ तो निभाओ कि चला मैं
ख़ालिद मलिक साहिल