कुछ बोल गुफ़्तुगू का सलीक़ा न भूल जाए
शीशे के घर में तुझ को भी रहना न भूल जाए
वा रख सदा दरीचा-ए-ख़ुद-आगही कि तू
अच्छे तो क्या बुरों को परखना न भूल जाए
ज़ख़्म-ए-निहाँ को शौक़-ए-तलब से जुदा न कर
होता है रोज़ ओ शब जो तमाशा न भूल जाए
कर दें न बे-तलब ये मुसलसल अज़िय्यतें
दिल भी कहीं वफ़ा का सलीक़ा न भूल जाए
मंज़िल का नश्शा क़ुर्बत-ए-मंज़िल न छीन ले
अपनी गली में आ के ही रस्ता न भूल जाए
मत रख तज़ाद-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन कि आदमी
तुझ को तिरे अमल से परखना न भूल जाए
वो भीड़ है कि शहर में चलना मुहाल है
उँगली पकड़ना बाप की बच्चा न भूल जाए
'नाहीद' रिफ़अतें तो मिलेंगी बहुत मगर
आँखों को अपने शहर का नक़्शा न भूल जाए
ग़ज़ल
कुछ बोल गुफ़्तुगू का सलीक़ा न भूल जाए
किश्वर नाहीद

