EN اردو
कुछ बोल गुफ़्तुगू का सलीक़ा न भूल जाए | शाही शायरी
kuchh bol guftugu ka saliqa na bhul jae

ग़ज़ल

कुछ बोल गुफ़्तुगू का सलीक़ा न भूल जाए

किश्वर नाहीद

;

कुछ बोल गुफ़्तुगू का सलीक़ा न भूल जाए
शीशे के घर में तुझ को भी रहना न भूल जाए

वा रख सदा दरीचा-ए-ख़ुद-आगही कि तू
अच्छे तो क्या बुरों को परखना न भूल जाए

ज़ख़्म-ए-निहाँ को शौक़-ए-तलब से जुदा न कर
होता है रोज़ ओ शब जो तमाशा न भूल जाए

कर दें न बे-तलब ये मुसलसल अज़िय्यतें
दिल भी कहीं वफ़ा का सलीक़ा न भूल जाए

मंज़िल का नश्शा क़ुर्बत-ए-मंज़िल न छीन ले
अपनी गली में आ के ही रस्ता न भूल जाए

मत रख तज़ाद-ए-ज़ाहिर-ओ-बातिन कि आदमी
तुझ को तिरे अमल से परखना न भूल जाए

वो भीड़ है कि शहर में चलना मुहाल है
उँगली पकड़ना बाप की बच्चा न भूल जाए

'नाहीद' रिफ़अतें तो मिलेंगी बहुत मगर
आँखों को अपने शहर का नक़्शा न भूल जाए