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कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना | शाही शायरी
kuchh bhi na kahna kuchh bhi na sunna lafz mein lafz utarne dena

ग़ज़ल

कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना

फ़रहत एहसास

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कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना
मिट्टी का ये प्याला अपने आब-ए-हयात से भरने देना

मैं भी महज़ इक जिस्म नहीं हूँ तुम भी महज़ इक रूह नहीं हो
जिस्म-ओ-रूह के अक्स को उन के आईने में उतरने देना

अपने जिस्म के आईने से हर ख़ाकी चिलमन को हटा कर
सामने बैठे रहना मेरे रूह को मेरी सँवरने देना

सिर्फ़ हवा-ए-मोहब्बत हूँ मैं आऊँगा और गुज़र जाऊँगा
बस इतना करना मुझ को अपने अंदर से गुज़रने देना

और किसी साहिल पर जा कर उभरूँगा एक और बदन में
मिट्टी छोड़ रहा हूँ मैं मुझ को दरिया में उतरने देना

तेज़ हवा-ए-तग़ाफ़ुल हो तुम मैं हूँ गर्द-ओ-ग़ुबार-ए-मोहब्बत
ख़ूब मज़ा आएगा मुझ को सामने अपने बिखरने देना

इस 'एहसास' को मत उलझाना किसी भी बहस-ए-फ़ना-ओ-बक़ा में
जीना चाहे तो जीने देना मरना चाहे तो मरने देना