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कुछ भी कर पाए न हम हिज्र की हैरानी में | शाही शायरी
kuchh bhi kar pae na hum hijr ki hairani mein

ग़ज़ल

कुछ भी कर पाए न हम हिज्र की हैरानी में

सलाहुद्दीन नदीम

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कुछ भी कर पाए न हम हिज्र की हैरानी में
घर भी वीरान किया दिल की परेशानी में

रंग ही रंग हैं बिखरे हुए दामन में मिरे
रच गया है मिरी आँखों का लहू पानी में

जिस्म अपना भी महकता हुआ गुलज़ार लगा
फिर तिरे ग़म की हवा आई है जौलानी में

यूँ निगाहों में उतरने लगे यादों के नुजूम
दर्द भी महव हुआ आइना-सामानी में

अपने ख़्वाबों के तिलिस्मात से बाहर तो निकल
जिस्म को छू के कभी देख तू उर्यानी में

सुख़न-ए-गर्म के पर्दों को गिराने वाला
छपने पाया न कभी अपनी पशेमानी में

ख़ल्वत-ए-दिल के अँधेरों में वो सूरज निकला
मुँद गई आँख मिरी रूह की ताबानी में

आफ़ियत ढूँडने निकले थे ख़मोशी में 'नदीम'
घिर गए अपनी ही आवाज़ की तुग़्यानी में