कुछ भी हो ये तो मिरे यार नहीं हो सकता
मैं तिरा हाशिया-बरदार नहीं हो सकता
दिल से तुम जा तो रहे हो मगर इतना सुन लो
ये दरीचा कभी दीवार नहीं हो सकता
रस्म-ए-इज़हार-ए-मोहब्बत में ज़रूरी ही सही
ये तमाशा सर-ए-बाज़ार नहीं हो सकता
वस्ल की चाह करूँ हिज्र में भी आह भरूँ
ये मिरे इश्क़ का मेआर नहीं हो सकता
अपनी तारीफ़ सुनी है तो ये सच भी सुन ले
तुझ से अच्छा तिरा किरदार नहीं हो सकता
ग़ज़ल
कुछ भी हो ये तो मिरे यार नहीं हो सकता
मंसूर उस्मानी