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कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे | शाही शायरी
kuchh bhi dushwar nahin azm-e-jawan ke aage

ग़ज़ल

कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

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कुछ भी दुश्वार नहीं अज़्म-ए-जवाँ के आगे
आशियाँ बनते गए बर्क़-ए-तपाँ के आगे

ज़िंदगी नग़्मा-ए-दिल-कश है मगर ऐ नादाँ
तू ने सीखा ही नहीं आह-ओ-फ़ुग़ाँ के आगे

क़िस्सा-ए-बज़्म-ए-तरब तज़किरा-ए-मौसम-ए-गुल
ख़ूब हैं यूँ तो मगर सोख़्ता-जाँ के आगे

हम हैं और फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ है और हम
हम से क्या पूछते हो फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ के आगे

दस्तरस अक़्ल की है सरहद-ए-इदराक सही
मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ के आगे

ज़हमत-ए-यक-निगह-ए-लुत्फ़ कभी तो ऐ दोस्त
हम को कहना है बहुत लफ़्ज़-ओ-बयाँ के आगे

यूँ तो दोज़ख़ में भी हंगामे बपा हैं लेकिन
फीके फीके से हैं आशोब-ए-जहाँ के आगे