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कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं | शाही शायरी
kuchh bad-gumaniyan hain kuchh bad-zabaniyan hain

ग़ज़ल

कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं

सरदार गेंडा सिंह मशरिक़ी

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कुछ बद-गुमानियाँ हैं कुछ बद-ज़बानियाँ हैं
मुद्दत से उन की हम पर ये मेहरबानियाँ हैं

आता है जब किसी पर रुकता नहीं है हरगिज़
मानिंद-ए-मौज-ए-दरिया दिल की रवानियाँ हैं

पैदा कहाँ हैं होते अब 'ज़ौक़' और 'ग़ालिब'
हाँ 'दाग़' और 'हाली' उन की निशानियाँ हैं

जो पास था वो खोया नाम-ए-सलफ़ डुबोया
क्या ख़ाक अपनी ऐ दिल अब ज़िंदगानियाँ हैं

ऐ दिल न छेड़ क़िस्सा हो दर्द जिस से पैदा
ये शे'र-ख़्वानियाँ है या नौहा-ख़्वानियाँ हैं

क्या हम ने ये निकाली तर्ज़-ए-ग़ज़ल निराली
कुछ गुल-फ़िशानियाँ हैं कुछ ख़ूँ-फ़िशानियाँ हैं

बाद-ए-ख़िज़ाँ ने गुलशन वीराँ किया है सारा
बुलबुल की अब कहाँ वो रंगीं-बयानियाँ हैं

जौर-ओ-जफ़ा के ऐसे हम हो गए हैं ख़ूगर
ना-मेहरबानियाँ भी अब मेहरबानियाँ हैं

ऐ 'मशरिक़ी' जहाँ में देखा यही तमाशा
कुछ मातम-ओ-अलम है कुछ शादमानियाँ हैं