कुछ ऐसी कैफ़ियत से साक़ी-ए-मस्ताना आता है
कि जैसे रंग छलकाता हुआ पैमाना आता है
कुछ ऐसे भी हैं जो महफ़िल में तिश्ना-काम रहते हैं
निगाह-ए-लुत्फ़ हटती है अगर पैमाना आता है
ये किस की शक्ल आँखें बंद करते ही नज़र आई
ये किस का नाम लब पर ख़ुद पए अफ़्साना आता है
उसे हम भूल जाएँ हम ने चाहा है बहुत लेकिन
ख़याल आता है अक्सर और बेबाकाना आता है
मुझे इस बे-ख़ुदी पर भी दिल-ए-मरहूम ऐ 'जौहर'
बहुत याद आता है जब दौर में पैमाना आता है

ग़ज़ल
कुछ ऐसी कैफ़ियत से साक़ी-ए-मस्ताना आता है
जौहर ज़ाहिरी