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कुछ ऐसे तेरे बदन का यहाँ निशाँ खुलेगा | शाही शायरी
kuchh aise tere badan ka yahan nishan khulega

ग़ज़ल

कुछ ऐसे तेरे बदन का यहाँ निशाँ खुलेगा

वक़ास अज़ीज़

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कुछ ऐसे तेरे बदन का यहाँ निशाँ खुलेगा
कि जिस तरह से समुंदर में बादबाँ खुलेगा

ये सोचते ही मिरे हाथ-पाँव फूल गए
मिरा निशान कहानी में कब कहाँ खुलेगा

गुज़रते वक़्त किसी को ख़बर नहीं थी यहाँ
कि एक दम से दिलों पर ये ख़ाक-दाँ खुलेगा

मैं दाएँ-बाएँ किसी और सम्त भी देखूँ
किसे ख़बर कि कहाँ से ये दरमियाँ खुलेगा

यहाँ ये कौन तुझे याद रक्खेगा ऐ 'अज़ीज़'
कि तेरे बा'द ही ये ज़िक्र-ए-दोस्ताँ खुलेगा