कुछ ऐसे तेरे बदन का यहाँ निशाँ खुलेगा
कि जिस तरह से समुंदर में बादबाँ खुलेगा
ये सोचते ही मिरे हाथ-पाँव फूल गए
मिरा निशान कहानी में कब कहाँ खुलेगा
गुज़रते वक़्त किसी को ख़बर नहीं थी यहाँ
कि एक दम से दिलों पर ये ख़ाक-दाँ खुलेगा
मैं दाएँ-बाएँ किसी और सम्त भी देखूँ
किसे ख़बर कि कहाँ से ये दरमियाँ खुलेगा
यहाँ ये कौन तुझे याद रक्खेगा ऐ 'अज़ीज़'
कि तेरे बा'द ही ये ज़िक्र-ए-दोस्ताँ खुलेगा
ग़ज़ल
कुछ ऐसे तेरे बदन का यहाँ निशाँ खुलेगा
वक़ास अज़ीज़