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कुछ अबरुओं पे बल भी हैं ख़ंदा-लबी के साथ | शाही शायरी
kuchh abruon pe bal bhi hain KHanda-labi ke sath

ग़ज़ल

कुछ अबरुओं पे बल भी हैं ख़ंदा-लबी के साथ

अनवर साबरी

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कुछ अबरुओं पे बल भी हैं ख़ंदा-लबी के साथ
फ़रमा रहे हैं जौर मगर दिल-कशी के साथ

शामिल हो गर न ग़म की ख़लिश ज़िंदगी के साथ
रक्खे न कोई रब्त-ए-मोहब्बत किसी के साथ

इस एहतिमाम-ए-जश्न-ए-मशिय्यत को क्या कहूँ
पैदा किया है दर्द दिल-ए-आदमी के साथ

जीने न दें हयात की पैहम शरारतें
इंसाँ जो ख़ुद शरीर न हो ज़िंदगी के साथ

हर गाम पर है लग़्ज़िश-ए-पा का भी इक ख़तर
चलिए रह-ए-वफ़ा में सलामत-रवी के साथ

मुमकिन है मिल ही जाए मक़ाम-ए-सुकूँ कहीं
ता मर्ग हम-रिकाब रहो ज़िंदगी के साथ

बा-वस्फ़-ए-ज़िक्र-ए-कौसर-ओ-तसनीम किस लिए
वाइज़ को ज़िद है मश्ग़ला-ए-मय-कशी के साथ

मालूम उस की तल्ख़ी-ए-अंजाम है मगर
'अनवर' बिला ख़ुलूस न मिलिए किसी के साथ