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कुछ अब के बरस और हवाओं का चलन है | शाही शायरी
kuchh ab ke baras aur hawaon ka chalan hai

ग़ज़ल

कुछ अब के बरस और हवाओं का चलन है

महेंद्र प्रताप चाँद

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कुछ अब के बरस और हवाओं का चलन है
बोझल है फ़ज़ा वक़्त के माथे पे शिकन है

देती हैं धुआँ अब भी सुलगती हुई शामें
माहौल पे छाई हुई वैसी ही घुटन है

उभरी है फिर इक डूबते मंज़र की कोई याद
संगीत की लय है कि ये सूरज की किरन है

निखरा है तिरा रूप मिरे शे'रों में ढल कर
सँवरा हुआ मेरा भी हर इक नक़्श-ए-सुख़न है

महकी हुई साँसों में बसी है कोई मूरत
ख़ुशबू-ए-बदन है कि ये ख़ुश्बू का बदन है

सीने से लगा लो इसे पलकों पे सजा लो
ऐ 'चाँद' ये बीते हुए लम्हों की चुभन है