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कोशिश-ए-पैहम को सई-ए-राएगाँ कहते रहो | शाही शायरी
koshish-e-paiham ko sai-e-raegan kahte raho

ग़ज़ल

कोशिश-ए-पैहम को सई-ए-राएगाँ कहते रहो

अख़्तर अंसारी अकबराबादी

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कोशिश-ए-पैहम को सई-ए-राएगाँ कहते रहो
हम चले अब तुम हमारी दास्ताँ कहते रहो

गुफ़्तनी बातें सही नाग़ुफ़्तनी बातें सही
चुप न बैठो कोई अफ़्साना यहाँ कहते रहो

मस्लहत क्या बात जो हक़ ही वो कह दो बरमला
लाख हों अहबाब तुम से बद-गुमाँ कहते रहो

हम कि थे आज़ाद आज़ादी की ख़ातिर मर गए
जीने वालो तुम क़फ़स को आशियाँ कहते रहो

सिर्फ़ कहने से ज़मीं क्या आसमाँ हो जाएगी
कुछ नहीं होगा ज़मीं को आसमाँ कहते रहो

राह क्या मंज़िल है कैसी हर हक़ीक़त है फ़रेब
कारवाँ को भी ग़ुबार-ए-कारवाँ कहते रहो

क्यूँ करो 'अख़्तर' की बातें वो तो इक दीवाना है
तुम तो यारो अपनी अपनी दास्ताँ कहते रहो