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कोई उम्मीद न बर आई शकेबाई की | शाही शायरी
koi ummid na bar aai shakebai ki

ग़ज़ल

कोई उम्मीद न बर आई शकेबाई की

कृष्ण मोहन

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कोई उम्मीद न बर आई शकेबाई की
इस ने बातों में बहुत हाशिया-आराई की

इश्क़ दिन-रात रहा कैफ़-ओ-तरब में सरशार
हुस्न ने सल्तनत-ए-इश्क़ पे दाराई की

न मिला पर न मिला अपने मसाइल का हल
आस्तानों पे बहुत हम ने जबीं-साई की

आह ऐ सोज़-ए-दरूँ मेरे जुनूँ से अब तक
मंज़िलें सर न हुईं बादिया-पैमाई की

सोच का लोच कभी उन को मयस्सर न हुआ
बाज़ लोगों ने फ़क़त क़ाफ़िया-पैमाई की

कार-ए-बेकार हुई बस में सफ़र करता हूँ
ये भी इक सूरत-ए-बे-कैफ़ है महँगाई की

शेर कहता रहूँ बहता रहूँ अपनी रौ में
छेड़ चलती रहे एहसास की पुर्वाई की

एक शेर और सुना दे कि ज़माने भर में
धूम है तेरे तग़ज़्ज़ुल की तवानाई की

तंग-ज़र्फ़ी है मिरे वहम का ठहरा पानी
ठहरे पानी पे जमी काई है ख़ुद-राई की

वा दरेग़ा कि ज़रा क़द्र न की दुनिया ने
'कृष्ण-मोहन' तिरे इरफ़ान की गहराई की