कोई तुम जैसा था ऐसा ही कोई चेहरा था
याद आता है कि इक ख़्वाब कभी देखा था
रात जब देर तलक चाँद नहीं निकला था
मेरी ही तरह से साया भी मिरा तन्हा था
जाने क्या सोच के तुम ने मिरा दिल फेर दिया
मेरे प्यारे इसी मिट्टी में मिरा सोना था
वो भी कम-बख़्त ज़माने की हवा ले के गई
मेरी आँखों में मिरी मय का जो इक क़तरा था
तू न जागा मगर ऐ दिल तिरे दरवाज़े पर
ऐसा लगता है कोई पिछले पहर आया था
तेरी दीवार का साया न ख़फ़ा हो मुझ से
राह चलते यूँही कुछ देर को आ बैठा था
ऐ शब-ए-ग़म मुझे ख़्वाबों में सही दिखला दे
मेरा सूरज तिरी वादी में कहीं डूबा था
इक मिरी आँख ही शबनम से शराबोर रही
सुब्ह को वर्ना हर इक फूल का मुँह सूखा था
तुम ज़रा थाम लो आ कर कभी पैमाना-ए-जाँ
देखो देखो मिरे हाथों से अभी छूटा था
ग़ज़ल
कोई तुम जैसा था ऐसा ही कोई चेहरा था
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

